वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Tuesday 27 September 2011

बचपन


उजली चाँदनी रातें
शीतल स्नेह की बरसातें
हवेली का वो चौक
चौक में सटी चारपाइयाँ
१२-१३ भाई-बहनों संग
होती खूब चुहलबाजियाँ
रूठने-मनाने की वो बातें
याद आती हैं ...............

हवेली के भीतर का चौक
स्त्रियों, बच्चों का साम्राज्य
दिन भर की थकान के बाद
उनींदी माँ, काकी, ताइयाँ
कोई सुनाती कहानियाँ
कोई लाडो की मनुहार पर
पिरोती गीतों की लड़ियाँ
गीतों की वो तान
याद आती है .................

चूल्हे थे चार
कैसा ये न्यारपन
भूख लगी
जहाँ रोटी पहले सिंकती
दही-कटोरा हाथ ले
बच्चों की महफ़िल
वहीँ जमती
बड़े अधिकार से
"पहले मैं" लड़ते थे
वो मीठी लड़ाइयाँ
याद आती हैं ...............

ईमली पर चढ़
कटारे तोड़ना
चठ्कारे ले
दावत उड़ाना
पनघट की मुंडेर
"छू ले " पुकारना
अलस दोपहरी
चोपड़ सजाना
गुड़िया की चूनर
गोटा लगाना
गुड्डे की बारातें
याद आती हैं ...........

सावन में झूलना
मोर ज्यूँ दिल का नाचना
बारिश में नहाना
गीली, सौंधी रेत
देर तक घरौंदे बनाना
लाल, रेशमी तीज ढूँढना
उजले आसमां में
इन्द्रधनुष खोजना
"मेरै मामै की धनक "
खिलकर पुकारना
इन्द्रधनुष के वे रंग
याद आते हैं .................

Saturday 24 September 2011

अश्कों को समझाना है .......






टूटा दिल बहलाना है
अश्कों को समझाना है

अब ना बहायें ये दरिया
उन्हें न प्यार बरसाना है

उनके हसीं ख्यालों को
बस ख़्वाबों में लहकाना है

आईं थीं कभी बहारें भी
अब यादों को महकाना है

गुज़रे लम्हे आयेंगे याद बहुत
ग़म को सीने में दफ़नाना है

दिल में हो दर्द कितना भी
लबों से मगर मुस्काना है





Sunday 4 September 2011

गुरु-शिष्य परंपरा


                                       

वो भी एक समय था 
यह भी एक समय है

जब थी पावन-अमृत,गुरु-चरणों की धूल
अब शिष्य निज-गौरव,संस्कृति बैठे हैं भूल

जब गुरु थे ब्रह्मा, गुरु थे विष्णु, गुरु ही थे महेश 
अब तो यह गरिमा केवल, नाम को रह गई है शेष 

एकलव्य की गुरु निष्ठा इतिहास हो गई 
आज विद्यार्थी की निष्ठा परिहास हो गई !

चरित्र, विद्या, ज्ञान; इनका था सर्वोच्च मान
सरस्वती दब गई कहीं, लक्ष्मी हुई विराजमान


तब शिष्‍यों के प्रति, गुरुओं में था पूर्ण समर्पण

होता विद्या-दान नहीं; पैसा, ट्यूशन है आकर्षण


गुरु-शिष्य परम्परा में,यह परिवर्तन है निंदनीय 
संस्कृति की अवनति! यह परिवेश है शोचनीय 

लगता नहीं यह
परिवर्तन ज़रा भी शोभनीय 
आओ फिर से दें इसे, वो दिव्य रूप वन्दनीय