वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Thursday 28 June 2012

मजलूम बच्चे की पुकार



"
बच्चे भारत का भविष्य हैं
यही सपना दिया था ना आपने?
बोलो चाचा?
हिन्द का बच्चा-बच्चा झूम उठा था !
खूब दीं हमें -
योजना पर योजना
घोषणा पर घोषणा 
यहाँ तक कि एक दिन भी दे दिया -
"
बाल-दिवस
सपने दिए, भाषण दिए
नहीं दी तो केवल रोटी
नहीं दिया तो केवल घर
नहीं दी तो केवल शिक्षा
नहीं दिया तो केवल वर्तमान
भूखे, अनपढ़ वर्तमान से
कैसे बनता भविष्‍ सुनहरा?
बोलो?

आज़ादी के ६५ बरसों में
इस लंबे सफ़र में
हम भी मुसाफ़िर थे
जोहते रहे बाट
क्या दिया हमें?
बाल-श्रम का अभिशाप
बाल-विवाह की बेड़ियाँ
अनाथालयों का नर्क
कुकर्म, अनाचार, अत्याचार
असह्य वेदना, पीड़ा और आँसू
आह!

इक्कीसवीं सदी के बाशिन्दो
विकास दर बताने वालो
"India is shining"
कहने वालो
देखो तुम्हारी रेशम के नीचे का घाव
इसकी रिसती मवाद तुम्हारे रेशम को सड़ा देगी
तुम्हारी कीमती रेशम
रह जाएगी बदबू का ढेर
जिसका भविष् आलीशान सोफ़े नहीं
कचरे की ढेरी होगा!

अभी समय है चेत जाओ
इस घाव को मरहम दो
मन से सुश्रूषा करो
सहलाओ, स्नेह से भर दो
जब होगा सर्वांग स्वस्थ
तभी दमकेगी काया
सुधार लो वर्तमान
भविष्‍य़ स्वयं सुधर जाएगा!

-
सुशीला शिवराण
चित्र : साभार - गूगल




Thursday 21 June 2012

कविताएं - कोई रूठे ना किसी से



बाबा की लाड़ली
बात-बात पर रूठती
खेल-खिलौने
मिठाई, गोल-गप्पे
कभी नई ड्रेस
बनते रूठने के बहाने
जिनकी आड़ में
पा ही लेती वह
ढेर-सा प्यार
और खूब मनुहार!

आज वह सुघड़ तरूणी
मनाती है सबको
कभी रूठे दिनों
रूठी रातों को
रूठे मीत
रूठे नातों को
कभी रूठ जाता नसीब
तो नयन छलछला उठते
भूले मंज़र तैर उठते
रूठने के ज़िक्र से
मन खोया-खोया हो जाता है
उसके बचपन का अस्त्र
उसकी गर्दन पर तन जाता है
घुटती हैं साँसें
कहती हैं आहें
कोई रूठे ना किसी से !

-सुशीला शिवराण
चित्र : साभार गूगल

Saturday 16 June 2012

ताँका - छोड़ चले नीड़ !


लीजिए मित्रो आज ताँका लेकर हाज़िर हूँ । सबसे पहले जानकारी -

ताँका
ताँका  जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य शैली है । इस शैली को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी  के दौरान काफी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी  हुआ करते थे । हाइकु का उद्भव इसी से हुआ । इसकी संरचना 5+7+5+7+7=31वर्णों की होती है।
ताँका  पाँच पंक्तियों और 5+7+5+7+7= 31 वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव  है ।
इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है । इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है ।
रामेश्वर  काम्बोज  'हिमांशु ' ; डॉ . हरदीप  कौर  सन्धु


१)
चोंच से चुग्गा
देख-देख के जीती
चूज़े सयाने
उग आए जो पंख
छोड़ चले वो नीड़ !

२)
वृक्ष मचान
कटती दोपहर
बेर, कटारे
स्वाद जहां से न्यारे
जहां जिसपे वारे !

३)
आए बदरा
झूम के नाचा मोर
नंग-धड़ंग
कागज़-कश्‍ती हाथ
पुलका बचपन!

४)
बरसे मेघ
साथ ले हल-बैल
चला खेत को
अन्न उगाने वाला
पेट बाँध के जीता !

-सुशीला शिवराण


Monday 11 June 2012

उमड़-घुमड़ कर बरसो घन



जलती धरती
आग उगलती
व्याकुल प्राणी
बूँद मिलती
उमड़-घुमड़ के बरसो घन !

कुम्हलाए बिरवे
झर गए फूल
सूखी नदिया
उड़ रही धूल
तुम आओ तो हरखे वन !

फटी धरती
कलपे किसान
सूखी बावड़ी
पंछी हलकान
प्यासे ढोर, प्यासे जन !

गाओ मल्हार
बदरा बरसें
झूमे सृष्‍टि
प्रकृति हरषे
पुरवाई छू जाए तन !





-सुशीला शिवराण

चित्र - साभार गूगल

Sunday 10 June 2012

तृप्‍ति





बुदबुदे की तरह
भीतर से रीता
परिधि में कैद 
तैर रहा है मन
अज्ञात दिशा की ओर!

एक तृषा
मृगतृष्‍णा
कस्तूरी की गंध
खींचे अपनी ओर

मन बावरा
बिन देखे
बिन जाने
किस भरोसे
अपना माने
और चाहे !

पथ के काँटे
निर्मम शूल
होगी क्षमा
उसकी भूल
काफ़ी है
हल्की-सी चोट
मिटाने के लिए
उसका वज़ूद!

बखूबी जानता है
कि मिटने से ही
बुझेगी प्यास
अतृप्‍ सफ़र को
मिलेगा तृप्‍ विराम !

-
सुशीला शिवराण