वीथी

हमारी भावनाएँ शब्दों में ढल कविता का रूप ले लेती हैं।अपनी कविताओं के माध्यम से मैंने अपनी भावनाओं, अपने अहसासों और अपनी विचार-धारा को अभिव्यक्ति दी है| वीथी में आपका स्वागत है |

Friday 21 June 2013

मैं वसुधा



मैं वसुधा
तुम्हारी धमनियों में
अन्न, जल, रस बन
सदियों से प्रवाहित हूँ
कभी फूल
कभी इत्र बन
सुवासित किया तुम्हारा प्रेम
पहाड़ों पर तुम्हारे प्रणय की साक्षी
औषधि से दिया आरोग्य
सींचती रही
पोसती रही
मैं जीवनदायिनी
निस्वार्थ
आनंदित ।

तुम मनुष्य
तुम्हारा स्वार्थ
तुम्हारी क्षुधा
नोचती रही मुझे
किए पहाड़ निर्वसन
कितने ही बाँधों में
बाँध दिया मेरा जीवन-प्रवाह
मेरे तन को दिए असंख्य घाव
किया रूप को कुरूप ।

तुम्हारा ईश्‍वर
कब तक मूक रह
देखता तुम्हारी कृतघ्‍नता
जीवनदायिनी के साथ
तुम्हारा छल, घात
चुक गया धैर्य
मिला प्रतिदान
तुम्हारे घात का
प्रतिघात ।

न ईश्‍वर सोया
न मैं हुई विध्‍वसंक
मत डाल हमारे कंधों पर
अपने पाप का बोझ
लालच में लंपट हो
जिस विनाश-मार्ग पर चल पड़ा था
उसकी परिणति
और क्या होती ?

- शील

चित्र : साभार गूगल

Sunday 16 June 2013

जब माँ थी; मालिक थे पिता

  • मेरी कलम से पिता जी के लिए - Happy Father's Day पापा !
    जिस पदचाप से
    चौकन्नी हो जाती हवेली
    जिस रौबीली आवाज़ से
    सहम जातीं भीतें
    दुबक जाते बच्चे
    पसर जाती खामोशी
    समय के कुएँ में
    पैठता गया रौब
    अब प्रतिध्वनि पर
    नहीं ठहरता कुछ
    चलता रहता है यंत्रवत
    दैनिक कार्यकलाप।

  • ~~~~~~~~~~~~~~~~~

    जब माँ थी
    मालिक थे पिता
    घर-बार-संसार
    चलता मर्ज़ी से
    माँ के जाते ही
    मुँद गए किवाड़
    अनाथ हुआ घर
    आधे-अधूरे
    हो गए पिता।
    -शील

Wednesday 12 June 2013

मेरे पावस


तुम्हारे प्रेम ने
पुरवा बन
जब-जब छुआ मुझे
झंकृत हुए मन के तार
झूम उठा अंग-प्रत्यंग
गा उठा मन 

गीत प्रीत के ।

तुम्हारे प्रेम ने
पावस बन
जब-जब भिगोया मुझे
जी उठी मैं
ज्यों तपती रेत
हो जाती है तृप्त
झमाझम बारिश में
आनंद से विभोर
हुलस उठा मन
नाचा बन मोर।

तुम्हारा प्रेम
मानता है सब नियम
नहीं रहता स्थायी
बदलता है प्रकृति-सा
हो जाता है पतझर
झर जाते हैं अहसास
जड़ हो जाते
मन-आत्मा
नहीं पोसता
तुम्हारा प्रेम

हो जाती हूँ ठूँठ
सहती मौसम की मार
निर्विकार

दग्ध करते अंतस 
आँधियाँ, लू के थपेड़े
खड़ी हूँ उन्मन
चिर-प्रतीक्षा में
कब आओगे
मेरे पावस?

- शील

चित्र - साभार गूगल

Saturday 8 June 2013

जेठ निष्ठुर - हाइकु

८ मई २०१३

१.
सूर्य प्रचंड
दग्ध अग्नि का कुंड
तपे भूखंड।

२.
जेठ निष्‍ठुर
उठते बवंडर
जलूँ, न जल।

३.
तड़की धरा
सूर्य-प्रकोप देख
किसान डरा।

४.
लू  तेरे बाण
नित हरते प्राण
मेघा ही त्राण।

५.
वीरान रास्ते
साँस रोके खड़े हैं
दरख़्त सारे।

६.
नीर-तलैया
ढूँढ रहे हैं प्राणी
पेड़ की छैंया।

७.
मेघा न आए
सूखे कुँए, बावड़ी
रवि तपाए।

८.
घर के छज्जे
जल का पात्र देख
पंछी हरखे।

९.
कारी बदरी
उमड़-घुमड़ आ
बाट गहरी।

१०.
चली पुरवा
लाई है संदेसवा
पी बिदेसवा।

- सुशीला श्योराण
 ‘शील’   

Saturday 1 June 2013

माँ की स्मृति में.....


साँसों की डोर उखड़ रही थी.......उसने चूल्हे की ओर देखा........जिसकी आँच में उंगलियाँ जला कितनी तृप्त होती रही वो......परिंडा, घड़े ....सींचती रही जिस अमृत से.... अपनों को, खुद को उस तपते रेगिस्तान में......नज़रें घूमती रहीं.......हर उस चीज़ पर जो उसकी ज़िन्दगी का बरसों से हिस्सा बनी रही......मानो मुंदने से पहले इन्हें आँखों में कैद कर अपने साथ ले जाना चाहती हो......घूमती हुई नज़र उन चेहरों पर टिक गई...... जिनमें वो खुद को देखती आई थी.....एक संतोष का भाव उसके चेहरे पर तैर गया.....अब पास ही खड़े अपने जीवन साथी का हाथ पकड़ा........अजीब सी वेदना तैर गई आँखों में......मझोले बेटे ने संबल देने के लिए उसका हाथ थामा......उसने बेटे-बेटी को देखा और उनके चेहरे आँखों में लिए सदा के लिए विदा कह गई.......

तू विदा लेकर भी कहाँ जुदा हो पाई माँ !


- शील